ख़बर ख़बरों की डेस्क, 14 जनवरी। ग्वालियर रियासत के सिंधिया राजवंश की अंतिम महारानी विजयाराजे सिंधिया और महाराजा जीवाजी राव सिंधिया की प्रेमकहानी शाश्वत प्रेम की मिसाल मानी जाती है। वैलेंनटाइन-डे के अवसर पर  khabarkhabaronki.com पर प्रस्तुत उनके जीवन की ये महत्वपूर्ण गाथा….

प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न कुटी छबाय…. अमीर का हो या ग़रीब का प्रेम वो शै है जिसके काटे का मंत्र तो बस महबूब ही जानता है। ऐसा ही प्रेमदंश लगा था हिंदुस्तान का सबसे बड़ी रियासतों में शामिल ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया को। सागर के नेपाल हाउस में पली बढ़ी राजपूत बाला लेखा दिव्येश्वरी को महाराजा जीवाजी राव ने पहली बार तब देखा था जब उनके लेखा के मामा ने उसे महाराजा से मिलवाया था। सादगी से परिपूर्ण अनिंद्य सुंदरी लेखा की पहली नज़र के तीर से ही सिंधिया रियासत का मराठा वीर घायल हो गया था। 21 तोपों की सलामी के हकदार मराठा महाराजा का विवाह अंग्रेज सरकार की प्रोविंशियल सर्विस के एक राजपूत अधिकारी की बेटी से हो, ये मराठा सरदारों को क़तई ग़वारा नहीं था। महाराजा के रिश्तेदार भी उनके विरोध में खड़े हो गए थे। लेखा के अप्रतिम सौंदर्य और सरह-सहज व्यक्तित्व की मोहनी के वशीभूत महाराजा के हृदय की पीड़ा का उपचार लेखा के अतिरिक्त कहीं ओर था ही नहीं। और फिर…वह हुआ जो सिंधिया रियासत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। साधारण राजपूत घराने की बेटी ग्वालियर की महारानी बन गई।

ये प्रेमकहानी है देश की सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा की संस्थापक और ग्वालियर की अंतिम महारानी विजयाराजे सिंधिया की। विजया राजे नाम उन्हें मिला था, प्रेम में महाराजा जीवाजी राव सिंधिया पर विजय के सम्मान में। लेखा दिव्येश्वरी को महारानी विजया राजे बना कर महाराजा ने आधी लड़ाई तो जीत ली थी, लेकिन अब लेखा को सिद्ध करनी थी जीवाजीराव के चयनित प्रेम की योग्यता। राजपूती संस्कारों में पली बढ़ी विजयाराजे के सामने अब चुनौती थी स्वयं को मराठी राज परंपरा के अनुकूल ढालने और उनमें घुलमिल जाने की, या फिर सिंधिया राजवंश के संस्कारों को ही बदल डालने की। महारानी विजयाराजे ने मध्यम मार्ग चुनते हुए पहले धीरे-धीरे सभी रिश्तेदारों का स्नेह जीता और उन्हें अपने पक्ष में सम्मिलित  कर लिया। यहां तक की महाराजा के मौसा और मौसेरे भाई सरदार आंग्रे को अपना विशेष समर्थक ही बना लिया। रियासतों के विलय के बाद शुरू से राजनीति में कम रुचि रखने वाले महाराज ने खुद को महल में ही सीमित कर लिया और सियासत में रियासत की नुमांदगी की बागडोर महारानी विजया को सौंप दी। मध्यभारत की गवर्नरी छिनने के बाद से रियासती रसूख के घटने के सदमे में डूबे महाराजा संतानों को महारानी विजया के आंचल में छोड़….संसार से विदा ले कैलाशवाशी हो गए।….किंतु प्रेम जीवित था महारानी की धड़कनों में, उनकी स्मृतियों में।

प्रेम की उच्चता दैहिक सौंदर्य नहीं आत्मा की नैतिक ऊंचाइयों से नापी जाती है। लेखा का महाराजा जीवाजी राव से स्नेह का आरंभ तो हुआ था दैहिक आकर्षण से, लेकिन महाराजा की निश्छलता का प्रतिसाद महारानी ने उनके कैलाशगमन के बाद भी उनकी अधूरी अभिलाषाओं को आत्मसात कर अपने समर्पण से दिया। जिस सियासत ने प्रियतम महाराज के रसूख को छीन उन्हें संसार से विदा लेने पर विवश कर दिया था, राजमाता विजयाराजे ने राजपथ से लोकपथ पर सूझबूझ से चलते हुए अपनी संतानों को उसी सियसत के शिखर तक पहुंचने की मार्ग प्रशस्त किया। राजमाता को इस लोकपथ के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए बलिदान तो बहुत देने पड़े। यहां तक कि राजनीतिक स्पर्धियों ने उन्हें तिहाड़ जेल में साधारण कैदियों के साथ समय व्यतीत करने पर विवश कर दिया। अपने प्रेम की निशानियों के भविष्य को सुरक्षित बना विरह की अर्धायु व्यतीत कर महारानी भी अपने प्रियतम के कैलाशपथ पर निकल गईं। लेकिन राजनीति में उनके स्थापित मूल्य आज मिसाल बन गए हैं। महारानी विजयाराजे ने सिद्ध कर दिया कि समर्पण और विश्वास की भूमि पर ही सच्चा प्रेम का अकुरण हो पाता है। यानी….प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समायं…  

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