नई दिल्ली। ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर चर्चा जोरों पर है. एक दिन पहले सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की घोषणा कर दी. सूत्र बता रहे हैं कि इस सत्र में एक देश, एक चुनाव पर चर्चा की जा सकती है. मोदी सरकार ने इस विषय पर विचार करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी. जानकारी के मुताबिक कमेटी इस विषय को लेकर कानूनी पहलुओं पर विचार करेगी. साथ ही कमेटी अन्य व्यक्तियों से भी विचार विमर्श करेगी, जिनमें आम लोग, कानूनी मामलों के जानकार और राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं.कमेटी को लेकर संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि अभी इस पर हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं है, अभी कमेटी बनी है, वह इस पर विचार करेगी, रिपोर्ट सौंपेगी और उसके बाद इस पर विस्तार से चर्चा होगी. उन्होंने कहा कि हम दुनिया के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र हैं, लोकतंत्र के हित में जो नई-नई चीजें आती हैं, उस पर चर्चा तो करनी चाहिए. चर्चा करने के लिए कमेटी बनाई है.
क्या कहा था अमित शाह ने- वैसे आपको बता दें कि सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने भी अलग-अलग मौकों पर इसके पक्ष में बयान दिया है. खुद गृह मंत्री अमित शाह ने इसी साल फरवरी में कहा था कि एक देश, एक चुनाव का सबसे सही समय अभी है. उन्होंने तो यहां तक कहा था कि पंचायत से लेकर संसद तक का चुनाव साथ-साथ कराए जा सकते हैं. शाह ने एएनआई को दिए गए साक्षात्कार में इस विषय पर सभी दलों से विचार करने की बात कही थी. लॉ कमिशन भी इसको लेकर पहले ही अपनी राय दे चुका है.
लाॅ कमिशन का सुझाव – दरअसल, लॉ कमिशन ने 2018 में वन नेशन, वन इलेक्शन का सुझाव दिया था. कमिशन ने कहा था कि अगर ऐसा होता है तो यह देश के आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक विकास के लिए अच्छा रहेगा और देश को लगातार चुनावी मोड में रहने की कोई जरूरत नहीं होगी. अपने सुझाव में कमिशन ने कहा था कि इससे धन की भी बचत होगी, लोगों का समय बचेगा, राज्य और केंद्र की सरकारें विकास पर फोकस कर सकेंगी और सरकारी नीतियों को बेहतर ढंग से लागू करने का पूरा समय मिल पाएगा.
लाॅ कमिशन के इन सुझावों पर गंभीरता से विचार किया गया. उस समय मीडिया में भी इसकी चर्चा भी हुई थी. तब भी विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया था. सरकार इसको लेकर काफी गंभीर दिख रही थी. लेकिन कानूनी अड़चन की वजह से सरकार शिथिल हो गई. साथ ही अगले ही साल 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे. सभी राजनीतिक पार्टियों की इस पर अलग-अलग राय थी. उन्हें एक नहीं किया जा सका. क्या इस बार राजनीतिक दल एक हो जाएंगे, अभी किसी को पता नहीं है. और विपक्षी पार्टियों ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी है, उसके आधार पर तो कहा जा सकता है कि वे इस बार भी इस मुद्दे का विरोध करेंगी. ऐसे में सरकार के सामने बड़ी चुनौती होगी, कि वह किस तरह से आम राय कायम करे.
कब हुए थे एक साथ चुनाव – आपको बता दें कि ऐसा नहीं है कि देश में कभी एक साथ चुनाव नहीं हुए. देश की आजादी के बाद 1952 में पहली बार आम चुनाव हुए थे. उसी साल सभी राज्यों में भी चुनाव हुए थे. उसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हुए. पर, 1967 से स्थितियां बदलने लगीं. कई राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और उसके बाद जिन राज्यों में गठबंधन की सरकार बनी, वे स्थायी रूप से सरकार को आगे नहीं बढ़ा सके. ऐसे में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग हो गए.
क्या यह संभव है – इस बिल को पास होने के लिए देश में जितने भी राज्य हैं, उनमें से आधे से एक अधिक, राज्यों को अपनी अनुमति देनी होगी. इस समय भाजपा और सहयोगी दलों की जहां-जहां सरकारें हैं, वह 16 राज्यों में हैं. इसलिए इस मोर्चे पर मोदी सरकार की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है. उसके लिए बिल को पास कराना मुश्किल नहीं होगी. लेकिन पेंच वहां पर होगा, जहां की राज्य सरकारों के कार्यकाल के लिए अभी काफी समय बचा हुआ है. क्या वहां की सरकारें समय से पहले विधानसभा को भंग करने की इजाजत देंगे. यह बहुत बड़ा सवाल है.दूसरी बात यह है कि अगर राज्य में किसी गठबंधन की सरकार है और किसी ने उनसे समर्थन वापस ले लिया, तो क्या मध्यावधि चुनाव होंगे या नहीं. और चुनाव हुए, तो उनका कार्यकाल कितने समय का होगा, क्या पांच साल का होगा या फिर बाकी बचे हुए कार्यकाल का. या फिर उसे राज्यपाल या राष्ट्रपति शासन के अधीन लाया जाएगा. अभी इन मुद्दों पर विचार करना बाकी है. ये सारे सवाल संवैधानिक हैं.
इंडिया के घटक दलों पर लगा सटीक निशाना – राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मोदी सरकार के इस दांव से इंडिया गठबंधन के घटक दलों में भ्रम की स्थिति बन सकती है. यानी लेफ्ट, टीएमसी और कांग्रेस तीनों की आपस में नहीं बनती है. कम से कम पश्चिम बंगाल और केरल की तो यही स्थिति है. ऐसे में इन राज्यों में अगर साथ-साथ चुनाव हुए, तो वे क्या करेंगे. क्या उनके लिए संभव है कि लोकसभा चुनाव में साथ-साथ लड़ें और विधानसभा में अलग-अलग चुनाव लड़ें. यह व्यावहारिक नहीं होगा. इसलिए मोदी सरकार का यह पासा इंडिया को निशाने पर ले रहा है. इंडिया के घटक दलों के मुश्किल स्थित हो सकती है.