देश में अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को गुरु-परब पर कथित किसानों को उनके हित की बात न समझा पाने के लिए माफी मांग ली, और लोकतांत्रिक तरीके से संसद के दोनों सदनों से स्वीकृत किसान कानून वापस लेने की घोषणा कर दी। इसकी भूमिका तो तभी बन घई थी जब पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह न देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की खण्डहर कांग्रेस से नाराज होकर पद व पार्टी छोड़ दी थी।

कुछ लोग इसे किसान आंदोलन की जीत बता रहे हैं और कुछ कह रहे हैं–मोदी की जिद टूट गई। कुछ इसे मोदी का सही समय पर खेला गया मास्टर-स्ट्रोक मान रहे हैं। आंदोलन की जीत तो यह क़तई नहीं है, क्योंकि कि यह किसानों का आंदोलन था ही नहीं। दरअसल यह ना-पाकिस्तानी  ISI की नापाक करतूत थी। इसमें कनाडा में बैठे धूर्त खालिस्तान समर्थक पन्नू अपना उल्लू सीधा कर रहा था। वह पंजाब के युवकों क भड़का कर अलगाववादी बनाने का धूर्त मंसूबा पूरा कर रहा था। आंदोलनी बकैत, राकेश टिकैत तो मात्र बजरबट्टू था।

गुप्तचर संस्थाओं के संकेत खतरनाक थे। देश का सामना चीन के ‘ढाई घर’ की चाल से था। सीमा पर दो तरफा युद्ध की स्थितियां बनाना, और आंतरिक सुरक्षा पर भी ग्रहण लगाने का प्रयास। शाहीन बाग का प्रयोग संयोगवश असफल हो जाने के बाद देश के मूढ़-Shrude आंदोलनजीवियों ने ISI को एक मौका और दे दिया था, जिसे उसने लपक कर पहला छक्का मार दिया था। किसान कानून के नाम पर शुरू हुआ यह आंदोलन देश में सिखों को हिंदुओं से दूर करने में सफल होता नजर आ रहा था। मोदी के सामने दो विपरीत स्थितियों के बीच निर्णय लेने का विकल्प था–किसान कानून वापस लेकर ISI-खालिस्तानी शक्तियों को निर्बल बनाना, अथवा कानूनों को वापस लेकर खुद को कमजोर दिखाना। मोदी ने कदम वापस ले लिए ताकि अलगाववादी ताकतें निर्बल हो जाएं, भले ही प्रत्य़क्षतः वह खुद ही कमजोर नज़र आएं। दरअसल मोदी के इस कदम ने अलगाववाद के पुनर्जीवित हो देशव्यापी होने की संभावनाओं का वध कर दिया है। 

मोदी के इस निर्णय के राजनीति परिणामों पर चिंतन करें तो इसका प्रभाव तात्कालिक से भी अधिक दूरगामी होंगे। पंजाब में सिद्धू-चन्नी और भी न जाने कितने मुर्गों के कुक्कुट-युद्ध में कांग्रेस तो अपनी संभावनाएं खो ही चुकी थी। इसका लाभ लेने के प्रयास में कवि कुमार द्वारा नामित लघुकाय-लंपट को अपनी विशालकाय महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति होती दिखने लगी थी। वह पंजाब में कमजोर कांग्रेस और आंदोलनजीवियों के पराक्रम से अलग-थलग हो चुकी भाजपा को परि-पार्श्व रख अपने‘आप’की सरकार बनाने के स्वप्न को पूरा करने में प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं। गुरु-परब पर मोदी के किसान कानून वापस लेने के निर्णय ने इन सभी के हथियार मोथरे कर दिए हैं, और अब इतना समय भी नहीं बचा है कि तो नए हथियार पैदा किए जाएं अथवा मोथरे हुए हथियारों में नई धार लगवाई जाए। अब अमरिंदर और शिरोमणि अकाली दल की उम्मीदों को आशा की नई किरण दिखाई देने लगी है। मोदी भाजपा के दम पर तो नहीं, किंतु अमरिंदर व शिअद के साथ मिलकर राष्ट्र-विरोधी लघुकाय-लंपट के पैने पंजों से पंजाब को बचा पाएंगे। उत्तरप्रदेश में योगी बाबा ताकतवर दिखाई दे रहे हैं, किंतु कथित किसान आंदोलन का बड़वानल पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मार्ग से पूरे प्रदेश में पैठने को आतुर था। मोदी ने वजीरी शतरंज-चाल और प्रत्यक्षतः लोकतंत्र की हार और स्वयं के कमजोर दिखाई देने के पैंतरे से देश में आंतरिक सुरक्षा को कमजोर होने से बचाया, साथ ही पंजाब, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, और आने वाले समय में मध्यप्रदेश व राजस्थान-हरियाणा में भी लोकतंत्र को मजबूत करने की भूमिका रच दी है। 

आप चौंकेगे कि अभी मध्यप्रदेश का उल्लेख कैसे प्रासंगिक हो गया। यहां जानने योग्य यह है कि मध्यप्रदेश में शिवराज की लंबे समय से मंजन बेचने वाली शैली के संवाद-संबोधनों से एकरसता में ऊंघती मध्यप्रदेश की जनता को शिवराज मामा कृष्ण की जगह शकुनि लगने लगे हैं। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यहां बदलाव के अवसर तलाश रहा है। कृषि कानून वापस लेने के निर्णय से केंद्रीय कृषि मंत्री और ग्वालियर-चंबल के दिग्गज नरेंद्र सिंह तोमर का मंत्रालय बदलने और कृषि-कर्मण विजेता किसान-पुत्र शिवराज को कृषि मंत्रालय का मुखिया बना कर केंद्र में लाने की भूमिका बन गई है। अब भाजपा के पास करिश्माई-व्यक्तित्व वाला सद्यजात सिंधिया मुख भी है। वर्तमान में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को ग्वालियर-चंबल में शीर्ष पर बनाए रखने और मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार में उनके समर्थकों को महत्व देकर उनके करिश्मे को बढ़ाया भी गया है।

आइए प्रतीक्षा करें यह जानने की कि आने वाले कल की भूमिका और उपसंहार क्या होंगे….

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