नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कन्याकुमारी में 45 घंटे के ध्यान और साधना में मिले अनुभव और अनुभूतियों को शेयर किया है। उन्होनें लिखा है कि कितने सारे अनुभव हैं, कितनी सारी अनुभूतियां हैं…मैं एक असीम ऊर्जा का प्रवाह स्वयं में महसूस कर रहा हूं। इतने बड़े दायित्वों के बीच ऐसी साधना कठिन होती है, लेकिन कन्याकुमारी की भूमि और स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा ने इसे सहज बना दिया। मैं सांसद के तौर पर अपना चुनाव भी अपनी काशी के मतदाताओं के चरणों में छोड़कर यहाँ आया था। मैं ईश्वर का भी आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे जन्म से ये संस्कार दिये। मैं ये भी सोच रहा था कि स्वामी विवेकानंद जी ने उस स्थान पर साधना के समय क्या अनुभव किया होगा! मेरी साधना का कुछ हिस्सा इसी तरह के विचार प्रवाह में बहा।

इस विरक्ति के बीच, शांति और नीरवता के बीच, मेरे मन में निरंतर भारत के उज्जवल भविष्य के लिए, भारत के लक्ष्यों के लिए निरंतर विचार उमड़ रहे थे। कन्याकुमारी के उगते हुए सूर्य ने मेरे विचारों को नई ऊंचाई दी, सागर की विशालता ने मेरे विचारों को विस्तार दिया और क्षितिज के विस्तार ने ब्रह्मांड की गहराई में समाई एकात्मकता का निरंतर ऐहसास कराया। ऐसा लग रहा था जैसे दशकों पहले हिमालय की गोद में किए गए चिंतन और अनुभव पुनर्जीवित हो रहे हों।कन्याकुमारी का ये स्थान हमेशा से मेरे मन के अत्यंत करीब रहा है। कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण श्री एकनाथ रानडे जी ने करवाया था। एकनाथ जी के साथ मुझे काफी भ्रमण करने का मौका मिला था। इस स्मारक के निर्माण के दौरान कन्याकुमारी में कुछ समय रहना, वहां आना-जाना, स्वभाविक रूप से होता था।कश्मीर से कन्याकुमारी… ये हर देशवासी के अन्तर्मन में रची-बसी हमारी साझी पहचान हैं। ये वो शक्तिपीठ है जहां मां शक्ति ने कन्या कुमारी के रूप में अवतार लिया था। इस दक्षिणी छोर पर माँ शक्ति ने उन भगवान शिव के लिए तपस्या और प्रतीक्षा की जो भारत के सबसे उत्तरी छोर के हिमालय पर विराज रहे थे। कन्याकुमारी संगमों के संगम की धरती है। हमारे देश की पवित्र नदियां अलग-अलग समुद्रों में जाकर मिलती हैं और यहां उन समुद्रों का संगम होता है। और यहाँ एक और महान संगम दिखता है- भारत का वैचारिक संगम।

यहां विवेकानंद शिला स्मारक के साथ ही संत तिरुवल्लूवर की विशाल प्रतिमा, गांधी मंडपम और कामराजर मणि मंडपम हैं। महान नायकों के विचारों की ये धाराएँ यहाँ राष्ट्र चिंतन का संगम बनाती हैं। इससे राष्ट्र निर्माण की महान प्रेरणाओं का उदय होता है। जो लोग भारत के राष्ट्र होने और देश की एकता पर संदेह करते हैं, उन्हें कन्याकुमारी की ये धरती एकता का अमिट संदेश देती है। कन्याकुमारी में संत तिरुवल्लूवर की विशाल प्रतिमा, समंदर से मां भारती के विस्तार को देखती हुई प्रतीत होती है। उनकी रचना ‘तिरुक्कुरल’ तमिल साहित्य के रत्नों से जड़ित एक मुकुट के जैसी है। इसमें जीवन के हर पक्ष का वर्णन है, जो हमें स्वयं और राष्ट्र के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने की प्रेरणा देता है। ऐसी महान विभूति को श्रद्धांजलि अर्पित करना भी मेरा परम सौभाग्य रहा।

अमृतकाल के इस प्रथम लोकसभा चुनाव में मैंने प्रचार अभियान 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की प्रेरणास्थली मेरठ से शुरू किया। माँ भारती की परिक्रमा करते हुए इस चुनाव की मेरी आखिरी सभा पंजाब के होशियारपुर में हुई। संत रविदास जी की तपोभूमि, हमारे गुरुओं की भूमि पंजाब में आखिरी सभा होने का सौभाग्य भी बहुत विशेष है। इसके बाद मुझे कन्याकुमारी में भारत माता के चरणों में बैठने का अवसर मिला। उन शुरुआती पलों में चुनाव का कोलाहल मन-मस्तिष्क में गूंज रहा था। रैलियों में, रोड शो में देखे हुए अनगिनत चेहरे मेरी आंखों के सामने आ रहे थे। माताओं-बहनों-बेटियों के असीम प्रेम का वो ज्वार, उनका आशीर्वाद…उनकी आंखों में मेरे लिए वो विश्वास, वो दुलार…मैं सब कुछ आत्मसात कर रहा था। मेरी आंखें नम हो रही थीं…मैं शून्यता में जा रहा था, साधना में प्रवेश कर रहा था। कुछ ही क्षणों में राजनीतिक वाद विवाद, वार-पलटवार…आरोपों के स्वर और शब्द, वह सब अपने आप शून्य में समाते चले गए। मेरे मन में विरक्ति का भाव और तीव्र हो गया…मेरा मन बाह्य जगत से पूरी तरह अलिप्त हो गया

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