एस.कुमार, नई दिल्ली

ख़बर ख़बरों की, 11 मार्च। विधानसभा चुनाव-2023 में मिली देशव्यापी पराजय और शीर्ष नेतृत्व की अदूरदर्शिता एवं रूखे अड़ियल रवैये से कांग्रेस में दिग्गजों से मैदानी कार्यकर्ताओं तक सभी का आत्मविश्वास रसातल में चला गया है। दक्षिणी राज्यों को छोड़ देश भर में कहीं भी चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी आगे नहीं आ रहे हैं। जिन्हें टिकट मिल रहे हैं, वह विजय के लिए ज़रूरी आत्मविश्वास नहीं जुटा पा रहे हैं। अघोषित सुप्रीमो सोनिया गांधी खुद ही रणछोड़ चुकी हैं, उनके बेटे राहुल गांधी को भी उत्तर से भाग सीधे दक्षिण में शरण लेनी पड़ी है और बेटी प्रियंका मां के छोड़े मैदान की बलिवेदी पर चढ़ने को तैयार नहीं हैं। प्रियंका जानती हैं कि इस कदम से कॅरियर का पहला चुनाव हारकर राजनीतिक भविष्य का उदय ही ग्रहण-ग्रस्त हो जाएगा। यह जानना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनावों में मोक्ष प्राप्त कर स्मृति शेष होगी अथवा शीर्ष नेतृत्व रूपी वर्तमान कलेवर को त्याग ‘फीनिक्स’ बन उभरेगी।

राम लला को उनके जन्म-स्थान में प्रतिष्ठित कराने के निर्विवाद श्रेय से प्राप्त विजयरथ पर सवार भारतीय जनता पार्टी के समक्ष कांग्रेस खड़े होने तक का आत्मबल नहीं जुटा पा रही है। आसन्न ‘लोकसभा -2024’ चुनाव के लिए कांग्रेस को मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ समेत देश में कहीं भी समेत देश में कहीं भी  में प्रत्याशी नहीं मिल रहे हैं। अधिकांश दिग्गज चुनाव से मुंह फेर रहे हैं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी व विवेक तन्खा जैसे बड़े नेताओं की दिलचस्पी लोकसभा चुनाव लड़ने में नहीं है। पचौरी भाजपा में शामिल हो चुके हैं, जबकि भाजपा के अजेय दुर्ग भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को आजमाया जा चुका है और कांग्रेस के पास अब कोई ऐसा उम्मीदवार ही नहीं है जो टक्कर देने की भी संभावना रखता हो। दिग्विजय भोपाल तो क्या कहीं से भी चुनाव लड़ने से अपने राज्यसभा कार्यकाल का हवाला देकर पीछे हट चुके हैं। राहुल के हाथों कथित तौर पर अपमानित कमलनाथ ने जबलपुर से नाम बढ़ाए जाने पर छिंदवाड़ा के अतिरिक्त किसी भी दूसरी सीट से चुनाव लड़ना अस्वीकार कर दिया है, जबकि छिंदवाड़ा में वह अपने पुत्र नकुलनाथ की उम्मीदवारी घोषित कर चुके हैं।

पार्टी की स्क्रीनिंग कमेटी की दो बार हो चुकी बैठक के बाद भी तय किये जा चुके सिंगल नामों में से जबलपुर महापौर जगत बहादुर सिंह भाजपा में चले गए और रीवा महापौर अजय मिश्रा ने अनिच्छा जता दी है। दरअसल रीवा में पूर्व विधानसभा अध्यक्ष स्व. श्रीनिवास तिवारी का प्रभाव क्षेत्र है। विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उनके पौत्र सिद्धार्थ तिवारी को प्रत्याशी बनाया था, किंतु हार जाने पर विधानसभा चुनाव में सिद्धार्थ को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तो वह भाजपा में शामिल हो गए और अब त्यौंथर से भाजपा के विधायक हैं। अरुणोदय चौबे कांग्रेस के सागर लोकसभा से, जबकि गजेन्द्र सिंह राजूखेड़ी धार लोकसभा से संभावित दावेदार थे, दोनों कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो चुके हैं।

इंदौर में संजय शुक्ला, विशाल पटेल और सत्यनारायण पटेल तीनों ही पूर्व विधायकों ने लोकसभा चुनाव से हाथ खींच लिया है।  संजय और विशाल तो भाजपा में शामिल हो चुके हैं। कांग्रेस प्रयास कर रही है कि संपन्न घराने से आने वाले अश्विन जोशी या स्वप्निल कोठारी में से किसी एक को इंदौर से चुनाव लड़ाया जाए ताकि पार्टी को चुनाव का खर्च की ज़हमत न उठानी पड़े। सीधी से पूर्व मंत्री कमलेश्वर पटेल एवं सज्जन सिंह वर्मा दोनों ही लोकसभा चुनाव में उतरने का हौसला खो चुके हैं।

खजुराहो में विगत दो लोकसभा चुनावों में करारी हार की पीड़ा झेल चुकी कांग्रेस ने पराजय की जिम्मेदारी इस बार एलाअंस  के नाम पर समाजवादी पार्टी को सौंप दी है।  ग़ौरतलब है कि विगत लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस को 29 में से एक और 2014 में दो सीटें मिली थीं। इस बार भाजपा 29 में से 29 सीट जीतने के उत्साह के साथ जुट गई है। भारतीय जनता पार्टी 29 में से 24 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है, जबकि कांग्रेस की दो बैठकों के बाद भी स्थिति ‘वही ढाक के तीन पात’ है।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ग़ौर करें तो उत्तरप्रदेश में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की ‘बी’ टीम बन चुकी है। बहन मायावती सभी जगह उम्मीदवार उतारने की इच्छा जता कर मुकाबले को त्रिकोणीय बना चुकी हैं, जो भाजपा के विजय अभियान को और तेज धार देगा। वैसे भी राम लला के आशीर्वाद से उत्साहित मोदी-योगी-शाह की अक्षोहिणी सेना का सामना करना उत्तरप्रदेश में आसान नहीं है। राजस्थान में भी अशोक गेहलोत और सचिन पायलट दोनों मैदान में उतरने के प्रति अनिच्छा जता चुके हैं। कमोबेश यही हालात छत्तीसगढ़ के भी हैं। दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे हवा का रुख बता चुके हैं।

हिमाचल में अभिषेक मनु सिंघवी की राज्यसभा में हार के बाद के डैमेज कंट्रोल की कोशिशों ने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ‘सुक्खू’ के विरुद्ध असंतोष को और बढ़ावा ही दिया है। लोकसभा चुनाव आते-आते असंतोष का ऊंट किसी भी करवट बैठे कांग्रेस की उम्मीदें तो दब ही जाएंगी।

‘आप-कांग्रेस’ की किसान-आंदोलन जुगलबंदी भी फ्लॉप-शो बन कर रह गई है, इससे कम-से-कम हरियाणा में तो भाजपा को लाभ ही मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। इस आंदोलन से फिलहाल किसी को फायदा नज़र आया है तो वह ‘आप’ को, वह भी सिर्फ पंजाब में, दिल्ली में तो लोकसभा चुनाव ‘आप’ के लिये भाजपा के पक्ष में उलटबांसी ही साबित होते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस ‘नबी’ के ‘आजाद’ हाथों से ग़ुलामों की तरह ठुकराई जा चुकी है। अब मुकाबला भाजपा और ‘गुपकार-गैंग’ के बीच ही बचा है।

पश्चिम में गुजरात तो भाजपा का अपराजेय गढ़ है ही, यहां तो हर-घर में मोदी के सूर्य की जादुई रश्मियां कमल खिलाने के लिए पर्याप्त हैं। उत्तर-पूर्व में असम समेत सात-बहनों के प्रदेशों में कमल खिल ही रहा है। पूर्व के उड़ीसा में वहां के लोकनायक नवीन पटनायक से भाजपा का समझौत हो चुका है। पूर्व के पश्चिम बंगाल में संदेशखाली के शेख शाहजहां के खेल ने ममता दीदी का ‘खेला होबे’ का हौसला ख़त्म कर दिया है। यहां बंगाल की नारी नारायणी का सुदर्शन चक्र ‘तृणमूल’ का मूलोच्छेद भी कर सकता है।

रुख़ दक्षिण की मोड़ें और महाराष्ट्र में प्रवेश करें तो यहां कांग्रेस का सफ़ाया साफ़ नज़र आ रहा है। कांग्रेस-शरद पवार के ‘षड़यंत्र दल’ के पूर्व सहयोगी अजित पवार व एकनाथ शिंदे भाजपा की गोद में पहले ही बैठ सत्तासुख ले रहे हैं। पार्टी के इकलौते ‘पृथ्वीराज’ चव्हाण भी सियासी असलहा समेत भाजपा के महारथी बन चुके हैं।

कर्नाटक में कांग्रेस का अंदरूनी आपसी संघर्ष छिपा नहीं है और भाजपा भी विधानसभा की विगत ग़फलत से उबर चुकी है। केरल में भी कम्युनिस्ट-गठबंधन कांग्रेसी साथ को नकार कर राहुल गांधी समेत उनकी पार्टी को हार के आसन्न पहुंचा चुका है। वहां कांग्रेस से भाजपा में आए अनिल एंटनी जैसे कुछ दिग्गज और मुस्लिमों के ढहाए मंदिरों की पुनर्प्रतिष्ठा में जुटी संस्थाएं हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण की उम्मीद बढ़ा रही हैं। इसी वजह से केरल में कांग्रेस की जगह मुख्य विपक्ष के सिंहासन पर भाजपा आसीन होती नज़र आ रही है।

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में भाजपा का विगत एक दशक से सक्रिय काडर तेलगू देशम के साथ हुए गठबंधन के बाद बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जगा रहा है। तमिलनाडु के द्रविड़ विचारधारा का दबदबे के पैर इस बार ‘सिंघम’ से राजनेता बने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई की जमीनी पदयात्रा के तूफान से उखड़ते दिख रहे हैं। वहां से इस बार कांग्रेस के तो शून्य पर ही आउट होने की आशंका जताई जा रही है।

कांग्रेस का आशंकित सफ़ाया देश के लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं माना जा सकता, किंतु इससे उम्मीद की एक किरण अवश्य कौंधती है, शायद कांग्रेस का युवा ज़मीनी कार्यकर्ता अपने कंधों पर लदे शाही परिवार के ‘जुए’ को उतार फेंके और बचे-खुचे मैदानी युवाओं में से ऐसा नेतृत्व उभरे जो वर्तमान देश-काल-परिस्थितिओं के अनुरूप पार्टी को गढ़ कर आने वाले वर्षों में कम-से-कम भाजपा के विरुद्ध सम्मानजनक संघर्ष के काबिल तो बना सके।

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