दिल्ली से प्रधान संवाददाता एस.कुमार की कलम से
ख़बर ख़बरों की। कलयुग के राजप्रशासन को नव युग का युगबोध कराने वाले सम्राट विक्रमादित्य की नगरी से निकले मुरली के मोहन स्वर कहीं रोम के नीरो की आत्ममुग्ध बांसुरी तो नहीं बनते जा रहे हैं। ऐसा नीरो, जिसकी आत्म-मुग्धता में रोम जल गया किंतु, नीरो स्वयं ही अपने छेड़े सुरों में मोहित बना रहा।
धारा नगरी के महाराजा भोज भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी और सम्राट विक्रमादित्य के कुल वंश में जन्मे और उनकी ही तरह युगप्रवर्ता नरेश थे। उनके राज-शासन में भी ज्ञान-विज्ञान की चहुमुंखी उन्नति हुई थी। उनके दरबार में भी नव-रत्नों को आश्रय दिया गया था। उनकी प्रजा भी सुखी एवं समृद्ध थी। किंतु, क्या राजा भोज के सिंहासनारूढ़ होते ही नीति-न्याय और प्रजा-वत्सलता ने राजा भोज के राजत्व को विक्रमादित्य के समकक्ष या उनका अनुगामी मात्र भी स्वीकार कर लिया था?
दादियों-नानियों से उज्जयिनी के मुरली मोहन ने सिंहासन बत्तीसी की कहानियां अवश्य सुनी होंगी। सम्राट विक्रमादित्य के सिंहासन अर्थात उनके प्रशासनिक दर्शन की प्रतिनिधि 32 संरक्षिकाएं (पुतलियां) अर्थात उनके साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों की 32 प्रतिनिधिकारी शक्तियों (जो आज मतदाता कहलाती हैं) ने राजा भोज को सम्राट विक्रम के राजदर्शन का जो पाठ पढ़ाया उस पर उज्जयिनी के मोहन को भी गौर करना होगा। आत्ममुग्ध नीरो की बंशी के सुर मधुर होते भी रोम साम्राज्य के पतन को नहीं रोक सके थे।
उज्जयिनी के मोहन को भी कहीं किसी सुयोग्य गुरु सांदीपनि की खोज कर लेना चाहिये जो उन्हें मोहनिया मुरली ही नहीं प्रजा-रंजन की 32 कलाओं का ज्ञान करा सके। क्योंकि आज की सिंहासन (सुशासन) रक्षिका प्रजा, नीति दर्शन पांच वर्ष उपरांत ही कराती है। इस अवधि का सदुपयोग जो नरेश कर लेता है, उसे ही सम्राट विक्रमादित्य के सुशासन सिंहासन पर बैठने का दोबारा अवसर मिलता है। अन्यथा प्रदेश को अंधेर नगरी बनाने वाले चौपट राजाओं की कर्म-कहानी तो यहां की ‘सिंहासन बत्तीसी’ बत्तीसों बार सुना चुकी है।
हे ‘मुरली मोहन’! कोई सांदीपनि मिलें तो उनसे पूछना
- गुरुवर मैं क्या करूं कि आज की कलुषित राजनीतिक आबोहवा में भी मैं सम्राट विक्र्मादित्य की तरह अजातशत्रु हो जाऊं? हे उज्जयिनी के धरतीपुत्र, कदाचित गुरुदेव बताएंगे कि अजातशत्रु तो आज कोई बन नहीं सकता, किंतु तुम किसानों, महिलाओं, गरीबों और युवाओं के कल्याण की योजनाएं बनाओ और उन्हें कार्यान्वित कराओ। इसके साथ ही अमीर-ग़रीब, अधिकारी-कर्मचारी, किसान-व्यापारीं सबकी सुनो, किंतु करो मन की (मन में जन-कल्याण का भाव अवश्य हो)….
- गुरुवर, कलयुगी राजनीति के तनाव भरे प्रशासनिक दबाव को भी मैं पूरी स्थितप्रज्ञता के साथ झेलकर मानसिक रूप से संतुलित कैसे रह सकता हूं? गुरुदेव निर्देश देंगे कि हे योगिराज भृतहरि की कर्मभूमि के मानसपुत्र, इसके लिए तो तुम्हें सक्रिय रहकर योग का ही आसरा लेना होगा। एक प्रशासक को राजयोगी, निष्काम कर्मयोगी और प्रजा-भक्ति योगी बनना ही पड़ता है। इससे तुम अपने-पराए सभी के प्रिय रहते हुए भी उनके कलुष-कलेवरों से सुरक्षित रह सकते हो।
- गुरुवर आज की राजनीति में जिसे भी संकटों से उबारों वही बेताल बन आपको ही मुसीबत में डालने लगता है, क्या करूं की हारे का सहारा भी बना रह सकूं और खुद को सुरक्षित भी रख सकूं? इसके लिए गुरुदेव जांबवंत बनकर तुम्हारे अंदर से प्रशासन-तंत्र की उस हनुमान शक्ति का दर्शन कराएंगे जो तुम्हें संकटमोचक भी बना सकती है और उन बेतालों के भार से भी बचा सकती है, जिनका संकट हरा गया है।
- गुरुदेव आज की राजनीति में दान के लिए याचक तो बहुत सारे सामने आते हैं, किंतु इसका फैसला कैसे करूं कि दान किसे दिया जाए। गुरुदेव विक्रामादित्य के दिए गए दानों का उदाहरण देकर समझाएंगे कि हे वत्स, दान सिर्फ सुपात्र को ही दिया जाए ताकि उसका दुरपयोग न होने पाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि जिसे दिया जाए उसके अंतर दिये गए दान को पचा पाने की भी सामर्थ्य हो। साथ ही प्रयास हों कि आपात याची के अलावा व्यक्तिगत दान न दिये जाएं, बल्कि ऐसी योजनाएं व्यवस्थित की जाएं की समस्त प्रजा को उसके जरूरत का दृव्य स्वयमेव उपलब्ध हो जाए ताकि उसे याचक बनना ही न पड़े। इससे गिने-चुने याचक ही नहीं समस्त प्रजा ही हितग्राही रहेगी औऱ तुम्हारा गुणगान (मतदान) करेगी।
- अब मेरा चित्त कुछ शांत होने लगा है गुरुदेव, किंतु शंका है कि प्रारब्ध के सहारे बैठूं या सतत कर्मशीलता को अपने प्रशासन में अमल में लाऊं? गुरुदेव समझाएंगे की पराक्रमी विक्रम की नगरी के वीर पुत्र तुम कैसे प्रारब्ध के सहारे बैठ सकते हो। प्रारब्ध ने तुम्हें इस हृदय प्रदेश का मुख्यमंत्री तो बनवा ही दिया है, अब तो तुम्हारे कर्म की बारी है।
- गुरुदेव, आज, योग्य होने के मुखौटे पहन कर सामने आते हैं, व्यक्ति की योग्यता को पहचान पाना कठिन हो गया है, कैसे पहचान की जाए? गुरुदेव इसका कोई निदान नहीं देंगे बस इतना कहेंगे के कान साफ रखो कर्ण-पिशाचों को सहारा मत बनाओ, अपने आप मुखौटे हट जाएंगे योग्यता सामने आ जाएगी।
- गुरुदेव के सान्निध्य से अब तक मुख्यमंत्री जी की राज-प्रशासन संबंधी जिज्ञासाएं शांत होने लगी होंगी। इस पर गुरुदेव स्वयं बताएंगे कि कभी-कभी कोई तुम्हें घोर अपराधी लगेगा, उस काल में वह होगा भी अपराधी ही, किंतु अन्वेषण करने पर पदता चलेगा कि वह अपराधी तो हैं किंतु आदतन नहीं विवशतावश। तुम उसे दण्ड के स्थान पर उसकी विवशता दूर कर उसे सुधरने का मौका दो। इस तरह के उदाहरणों से प्रजा में अपराध छोड़ प्रायश्चित का भाव जागेगा।
- गुरुदेव कहेंगे कि चुनाव जीतते ही ‘लॉ एंड ऑर्डर’ पर जो नकेल कसी थी, गुंडागर्दी लगाम लगाई थी, इसे अपने तेवरों में बरकरार रखो, प्रदेश के नागरिकों की रातें सुरक्षित, नींदें में चैन और दैनिक काम-काज में अमन का भाव बना रहेगा तो मुखिया में प्रदेश वासियों की उम्मीदें जीवंत बनी रहेंगीं। लेकिन, अब दिखाई देने लगा है कि प्रदेश का प्रशासन तंत्र उसी ढर्रे पर जल निकला है जो उसके लिए सुविधाजनक है। प्रशासन-तंत्र के तंतुओं में कसावट लाओ तो फिर से सुशासन के सुर बहने लगेंगे।
- गुरदेव इस पर प्रसन्नता जताएंगे कि प्रदेश की सभी 29 सीटें जीतकर मुख्यमंत्री मोहन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संगठन की नज़रों और ऊपर उठ गए हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा को छिंदवाड़ा विजय का यह शुभ दिन 40 साल बाद देखने को मिला है। किंतु, गुरुदेव विजय की इस खुशी को प्रमादी उन्माद न बनने देने की नसीहत देंगे।
- गुरुदेव बताएंगे कि 180 दिन में प्रदेश की जनता को सबसे ज्यादा उम्मीदें प्रदेश में पनप रहे गुंडाराज व माफियाओं पर अंकुश लगाए जाने की हैं। किंतु मुख्यमंत्री जी के चुनावों में व्यस्त रहने का लाभ उठाकर इंदौर-भोपाल की तरह प्रदेश के हर शहर में अपराधियों के हौसले बढ़े और लगाम नहीं कसे जाने पर उन्होंने अपना भयादोहन का रुतबा और बढ़ा लिया है। इन्हें राजनीतिक सरंक्षण भी जस का तस बना हुआ हैं। इसलिए हे मोहन मुरली वाले बने रहो किंतु इस बांसुरी से नीरो वाले राग न निकलें। साथ ही अब सुदर्शन धारी ‘योगी’ बनो।
- गुरुदेव जागरुक करेंगे कि हे उज्जयिनी के मोहन, मीडिया भी इस पर ध्यान नहीं दे रही है, किंतु मध्यप्रदेश के शहरी ही नहीं अब तो ग्रामीण युवा भी सांस्कृति प्रदूषण और नशे की गिरफ्त में हैं। कुछ नशे में सेहत खराब कर रहे हैं, कुछ नशे के दलदली कारोबार में फंस कर भविष्य चौपट कर रहे हैं और साथ ही प्रदेश को आर्थिक हानि पहुंचा रहे हैं।
हे सम्राट विक्रमादित्य के मानसपुत्र उम्मीद है कि इस लेख के अध्ययन और उस पर मनन के बाद आपको अपने प्रेरणापाद गुरु सांदीपनि मिल ही गये होंगे। अब आपने मध्यप्रदेश की स्थिति-परिस्थितियां जान ली होंगी और गुरुप्रेरित कार्यान्वयन का मार्ग भी मिल गया होगा।
अतयेव, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।