ग्वालियर। मुरैना जिले के नूराबाद में सांक नदी पर बने इस ऐतिहासिक पुल के नीचे सोई हुई हैं उस दौर की सबसे सुंदर महिलाओं में शुमार गन्ना बेग़म। मुगल शासक शहजहां के 14वें बच्चे की जन्म देने के बाद मृत्यु को प्राप्त करने वाली अर्जमंद बेगम अर्थात मुमताज महल की कथित मोहब्बत की याद में कथित तौर पर बने ताज महल को प्रेम की निशानी मानने वालों के लिए वैलेंटाइन डे के मौके पर khabarkhabaronki.com प्रस्तुत कर रहा है, ग्वालियर रियासत के पहले सिंधिया राजा महादजी और गन्ना बेगम की अनकही प्रेम कहानी। अपने प्रेम की रक्षा के लिए गन्ना ने अपनी कुरबानी दे दी और महादजी ने इसे व्यक्त करने के लिए न्ना बेगम के मकबरे पर फारसी में लिखवाया, ‘आह-गम-ए-गन्ना बेग़म’, यानी गन्ना बेगम के गम में निकली आह….
खूबसूरती और कला बन गई दुश्मन, आखिरकार महादजी की संगिनी बन मिला सुकून
गन्ना बैग़म के बारे में किस्साग़ोई है कि वह जब पान की गिलौरी निगलती थी तो उसके गले से नीचे उतरती लालिमा साफ नजर आती थी। गन्ना नाम तो मां ने रखा ही इसलिए था कि वह गन्ने के रस से भी मीठा गाती थी। किंतु गन्ना की संदरता औऱ सुरीला कंठ ही उसकी जिंदगी के अमन-चैन के दुश्मन बन गए। ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘महादजी सिंधिया’ में लिखा है–गन्ना ने प्रेम किया था भरतपुर के राजकुमार जवाहर सिंह से, और शादी करने भी पहुंच गई, लेकिन हमेशा की तरह यहां भी जवाहर सिंह के पिता राजा सूरजमल उनके प्यार के दुश्मन बन गए। गन्ना को बहू बनाने के मुद्दे पर बाप-बेटे में जंग हुई, जवाहर सिंह हारे और एक टांग भी गंवा बैठे। भरत के राजमहल से ठुकराई गन्ना बाद में उसी शुजाउद्दौला के कब्जे में आ गई जिसके चंगुल से भाग कर वह जवाहर की जीवन संगिनी बनने भरतपुर आ पहुंची थी। पहले दासी औऱ अब सहेली बन चुकी उम्दा बेगम ने उसकी मदद की और एक बार फिर गन्ना शुजाउद्दौला की कैद से भाग निकली। महादजी की वीरता के किस्से सुनती आई गन्ना ने सिख किशोर का वेश बनाया और महादजी के लश्कर में शामिल हो गई।
हिंदी, अरबी और फारसी में काबिलियत देख महादजी ने उसे अपना पत्र-लेखक बना लिया और उसका नाम गुनी राम रख दिया। कामकाज के सिलसिले में महादजी के साथ के एकांतवास में धीरे-धीरे गुनी राम के गन्ना बेगम होने की हकीकत महादजी के सामने उजागर हो गई। अब खूबसूरत गन्ना के गायन और नृत्य का भी महादजी एकांत में आनंद लेने लगे थे, लेकिन बाहर वालों के लए वह अब भी गुनीराम ही थी।
महादजी की रक्षा के लिए गन्ना ने दे दी कुरबानी
अहमद शाह अब्दाली से 1761 में हुई पनीपत की तीसरी जंग में मराठों की हार के बाद सिंधिया वंश में अकेले बचे महादजी ग्वालियर आए और यहां राजधानी की स्थापना की थी। महादजी सिंधिया ने बाद में अपना प्रभाव इतना बढ़ा लिया था कि दिल्ली का मुगल बादशाह भी उनके मशविरे से काम करने लगा था।
देशी हिंदू राजाओं के खिलाफ मुस्लिम शासकों को भड़काते फकीरों के साथ एक दिन शुजा ग्वालियर रियासत के नूराबाद तक आ पहुंचा। गन्ना को सिंधिया के खुफिया तंत्र से इसकी सूचना मिली तो वह बुरका पहन कर फ़कीरों और शुजा के षडयंत्रों का जायजा लेने गई। धूर्त शुजा ने चाल-ढाल से ही अपने हरम में रही गन्ना को पहचान लिया। वह गन्ना को अपनी हवस का शिकार बनाने के मंसूबे पाल ही रहा था, उससे पहले ही गन्ना ने भांप लिया और ज़हर खा कर जान दे दी।
महादजी ने कब्र पर पारसी में उकेरा, ‘आह गम-ए-गन्ना बेग़म‘
गन्ना की सुरक्षा में गए खुफिया सैनिकों ने जब हादसे की जानकारी महादजी को दी तो वो अपनी टुकड़ी के साथ रवाना हुए, लेकिन तब तक गन्ना दम तोड़ चुकी थी। महादजी के आने की खबर सुन शुजा और उसके साथी वहां से भाग गए। बाद में महादजी ने गन्ना को सांक नदी के किनारे ही दफना कर उसकी कब्र बनवा दी। गन्ना कब्र पर महादजी ने फारसी में लिखवाया, ‘आह गम-ए-गन्ना बेग़म’, इसका मतलब है, गन्ना बेगम के गम में निकली आह।
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