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स्मृति शेषः इंदौर की बेटी से सुर-साम्राज्ञी बनने का सफर तय कर अंतिम सफर पर निकलीं आवाज की देवी

ख़बर ख़बरों की डेस्क, 06 फरवरी। लता दीदी का महान गीत, नाम गुम जाएगा…. उनके बिछड़ जाने पर और शिद्दत से याद आता है। किंतु, सच तो यह है कि भारत कोकिला का न तो नाम गुम होगा और न ही लोग दैवीय आभा से दीप्त उनकी सलोनी सूरत को भुला पाएंगे। और जब-जब उनका नाम स्मरण किया जाएगा इंदौर और मध्यप्रदेश से उनके अटूट नाते को भी सम्मान के साथ याद किया जाएगा। उस समय के महान संगीतकार और रंगकर्मी पंडित दीनानाथ के घर में 28 सितंबर, 1929 को इंदौर के सिख मोहल्ले में एक बेटी का जन्म हुआ था, जिसने पिता के साथ ही इंदौर का नाम भी संगीत जगत में रोशन कर दिया। भले वह मुंबई में संघर्ष से स्वर्ण युग तक निवास करती रहीं, किंतु इस अकाट्य सत्य को खुद उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि इंदौर से उनका मां-बेटी का अटूट नाता है। लता जी के श्रद्धेय पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर मूविंग थियेटर कंपनी (बलवंत नाट्य मंडली) के संचालक थे, और पूरे देश में घूमते अपने रंगकर्म परोसते घूमते थे। मराठी बहुल इंदौर तो जैसे उनका दूसरा घर ही बन चुका था। पंडित दीनानाथ 1929 में पत्नी के इंदौर में लता की मौसी के घर में रुके हुए थे, यहीं लता मंगेशकर का किलकारी गूंजी थी। उनका बचपन के तोतले बोल लता ने इंदौर में ही सीखे थे, बाद में वह मुंबई चली गईं।

सुर-साम्राज्ञी बन कर भी लता कभी नहीं भूलीं जन्मभूमि का जायका

मायानगरी के रंगकर्म के संघर्ष ने लता से पिता छीन लिए, किंतु संघर्ष कर लता ने न सिर्फ अपने छोटे भाई-बहनों का पोषण किया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि इंदौर की मिट्टी में खेलकूद कर घुट्टी में उन्हें जो रंगकर्मी संस्कृति मिली है वह उन्हें महान गायिका बनाने की बुनियाद रही है। लता को भारत रत्न मिला साथ सुरों की देवी दर्जा भी, किंतु इंदौर के सराफा की खाऊ गली वह कभी नहीं भूलीं। यहां के गुलाब जाबुन, रबड़ी और दही बडे़ उन्हें बेहद पसंद थे।     

इंदौर आईं तो विदाई में बेटी को मिला, लता मंगेशकर अवार्ड का तोहफा

लता मंगेशकर 1950 के दशक के आखिर में औद्योगिक प्रदर्शिनी के दौरान इंदौर आईं थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी इस आयोजन में आए थे।प्रदर्शिनी की टिकट की दर डेढ़ रुपये से 25 रुपये तक रखी गई थी। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर की पुण्यतिथि पर लता के भाई ह्दयनाथ मंगेशकर और बहन उषा मंगेशकर ने भी यहां प्रस्तुति दी थी। इसके बाद1980 के दशक में भी इंदौर के नेहरू स्टेडियम में ‘लता-रजनी’ का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में 15,000 श्रोताओं पहुंचे थे, जिसे उल्लेखनीय घटना माना गया था। लता जी तीन दिन इंदौर में रहीं और बहन मीना मंगेशकर, नितिन मुकेश, शैलेन्द्र सिंह के साथ गीत प्रस्तुतियां दी थी। आयोजन में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने बेटी की बिदाई के तोहफे के रूप में उनके नाम से ‘लता मंगेशकर सम्मान’ शुरू किए जाने की घोषणा की तो लता ने भी अपनी गीत प्रस्तुतियों की फीस नहीं ली। यह अवार्ड मध्यप्रदेश सरकार द्वारा दिया जाने वाला देश का सुगम संगीत का सबसे बड़ा पुरस्कार है। आज इस सम्मान को 28 बरस हो गए हैं। इसमें एक वर्ष संगीतकार और एक वर्ष गायक और गायिका को सम्मानित किया जाता है। लता दीदी के नाम से शुरू हुए इस पुरस्कार के सिलसिले का आग़ाज संगीतकार नौशाद को सम्मान दिए जाने से हुआ था।

कंठ भले मौन हुआ हो, किंतु मौन अब मुखर हो गाएगा–एक थी लता मंगेशकर

लता दीदी के जाने से भारत भूमि का सुर-संगीत लगता है अब बेसुरा हो गया है, क्योंकि सुरों की देवी अपने आखिरी सफर पर निकल गई है। भारत की कोयल पंचम सुर पर गाकर अचानक सम पर आकर मौन हो गई है। बसंत ऋतु में आम्रकुंज में गूंज रही कोयल की कूक में हूक का अहसास हो रहा है, शायद उसे भी मालूम है कि संगीत की असली कोयल अब कभी नहीं कूकेगी। युग बीतेंगे, संगीत की पीढ़ियां भी बदलेंगी, लेकिन भारत की सुरीली बेटी की तान की खनक हमेशा संगीत साधकों के लिए कसौटी बनी रहेगी।

gudakesh.tomar@gmail.com

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